जातीय व्यवस्था की चुनौतियाँ – BSEB class 8 social science history chapter 8 notes

भारत का सामाजिक ढाँचा बहुस्तरीय और जटिल है, जिसमें जातीय व्यवस्था एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। जातीय व्यवस्था एक प्राचीन सामाजिक व्यवस्था है जिसने भारत के समाज को गहराई तक प्रभावित किया है। इस व्यवस्था ने समाज को विभिन्न वर्गों और जातियों में विभाजित कर दिया, जिससे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक असमानताएँ उत्पन्न हुईं।

BSEB class 8 social science history chapter 8 notes

BSEB class 8 social science history chapter 8 notes में “जातीय व्यवस्था की चुनौतियाँ” पर गहन चर्चा की गई है। इस लेख में, हम “Bihar Board Class 8 History Chapter 8 Notes” के आधार पर जातीय व्यवस्था की चुनौतियों और उसके प्रभावों पर विस्तार से बात करेंगे।

bihar board class 8 social science history chapter 8 notes – जातीय व्यवस्था का परिचय

जातीय व्यवस्था भारतीय समाज में हजारों वर्षों से प्रचलित एक सामाजिक विभाजन प्रणाली है, जिसे मुख्यतः वर्ण व्यवस्था के आधार पर विकसित किया गया। प्राचीन काल में भारतीय समाज को चार मुख्य वर्णों में विभाजित किया गया था: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इस व्यवस्था में जातियों का निर्धारण जन्म के आधार पर होता था, और हर जाति के लोगों के लिए समाज में एक निश्चित कार्य निर्धारित था।

  • ब्राह्मण: यह वर्ण समाज में धार्मिक और शैक्षिक गतिविधियों का संचालन करता था। ब्राह्मणों का मुख्य कार्य वेदों का अध्ययन और समाज को धार्मिक शिक्षा देना था।
  • क्षत्रिय: क्षत्रियों का कार्य समाज की रक्षा करना और राज्य प्रशासन चलाना था। ये राजा, योद्धा और सैनिक होते थे।
  • वैश्य: वैश्य वर्ण व्यापार, कृषि और अन्य आर्थिक गतिविधियों में संलग्न था। इन्हें समाज का आर्थिक आधार माना जाता था।
  • शूद्र: शूद्रों का कार्य समाज के अन्य वर्गों की सेवा करना था। इन्हें समाज की सबसे निचली श्रेणी में रखा गया और इनके साथ भेदभाव किया जाता था।

जातीय व्यवस्था की चुनौतियाँ:- जातीय व्यवस्था ने भारतीय समाज को लंबे समय तक प्रभावित किया है। हालाँकि, इस व्यवस्था ने सामाजिक स्थिरता और श्रम विभाजन के रूप में कुछ सकारात्मक परिणाम दिए, लेकिन इसके नकारात्मक प्रभाव बहुत अधिक रहे हैं। जातीय व्यवस्था के कारण भारतीय समाज में कई चुनौतियाँ उत्पन्न हुईं, जिन पर विचार करना आवश्यक है:

  • सामाजिक असमानता और भेदभाव:- जातीय व्यवस्था ने समाज को असमानता की जंजीरों में बाँध दिया। उच्च जाति के लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त थे, जबकि निम्न जातियों को हाशिए पर रखा गया। इस असमानता ने सामाजिक भेदभाव को जन्म दिया, जिसमें निम्न जातियों को शिक्षा, रोजगार और अन्य सुविधाओं से वंचित रखा गया।
  • छुआछूत और अछूत प्रथा:- जातीय व्यवस्था के कारण छुआछूत की प्रथा भारतीय समाज में गहराई तक जड़ें जमा चुकी थी। विशेषकर शूद्र और दलित जातियों को अछूत माना जाता था। इन्हें समाज के मुख्य धारा से अलग रखा गया, और इनके साथ अत्यधिक अमानवीय व्यवहार किया गया। मंदिरों में प्रवेश, सार्वजनिक स्थलों का उपयोग, और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं से इन्हें वंचित रखा गया।
  • शोषण और उत्पीड़न:- जातीय व्यवस्था के कारण निचली जातियों का शोषण और उत्पीड़न लंबे समय तक चलता रहा। उच्च जातियों ने अपने अधिकारों और संसाधनों का उपयोग करके निचली जातियों का शोषण किया। आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों को मेहनत-मजदूरी और कठिन कार्यों के लिए बाध्य किया गया, जिनमें उनकी स्थिति और बदतर हो गई।
  • शिक्षा और अवसरों में असमानता:- जातीय व्यवस्था ने शिक्षा और रोजगार के अवसरों में भी गहरी असमानता पैदा की। उच्च जातियों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था, जबकि निम्न जातियों को शिक्षा से वंचित रखा गया। इससे समाज में ज्ञान और आर्थिक संसाधनों का असमान वितरण हुआ, जिससे निम्न जातियाँ और पिछड़ती गईं।
  • सामाजिक गतिशीलता का अभाव:- जातीय व्यवस्था में जन्म के आधार पर सामाजिक स्थान निर्धारित होता था, जिससे लोगों के लिए सामाजिक और आर्थिक उन्नति के अवसर सीमित हो गए। एक व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, वह उसी जाति के कार्यों तक सीमित रहता था। इससे सामाजिक गतिशीलता का अभाव उत्पन्न हुआ और समाज में परिवर्तन की गति धीमी रही।

जातीय व्यवस्था के विरुद्ध आंदोलन और सुधार:- जातीय व्यवस्था की चुनौतियों के विरुद्ध समय-समय पर सामाजिक सुधार आंदोलनों का उदय हुआ। इन आंदोलनों ने जातीय भेदभाव और असमानता के खिलाफ आवाज उठाई और समाज में समानता और न्याय के सिद्धांतों को स्थापित करने का प्रयास किया।

  • भक्तिकाल और संत आंदोलन:- भक्तिकाल में संतों ने जातीय भेदभाव के विरुद्ध सामाजिक समानता का संदेश दिया। संत कबीर, गुरु नानक, रविदास और तुलसीदास जैसे संतों ने जाति-पाँति के विरोध में अपने विचार प्रस्तुत किए। इनका संदेश था कि ईश्वर के समक्ष सभी मनुष्य समान हैं और जाति का कोई महत्व नहीं है।
  • सामाजिक सुधारक और उनके आंदोलन:- 19वीं और 20वीं शताब्दी में कई सामाजिक सुधारकों ने जातीय भेदभाव के विरुद्ध आंदोलन चलाए। राजा राममोहन राय, ज्योतिराव फुले, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी जैसे महान व्यक्तित्वों ने जातीय व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई। महात्मा गांधी ने “हरिजन” शब्द का प्रयोग करके निम्न जातियों के लोगों को सम्मान देने का प्रयास किया और छुआछूत के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
  • संवैधानिक अधिकार और सामाजिक न्याय:- स्वतंत्रता के बाद भारत के संविधान में जातीय भेदभाव को समाप्त करने के लिए महत्वपूर्ण प्रावधान किए गए। डॉ. भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में संविधान में सभी नागरिकों के लिए समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों को स्थापित किया गया। संविधान में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों के लिए विशेष आरक्षण और सुविधाएँ प्रदान की गईं, ताकि उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त किया जा सके।

वर्तमान समय में जातीय व्यवस्था की स्थिति:- हालाँकि संविधान और कानून ने जातीय भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास किया है, लेकिन भारतीय समाज में जातीय मानसिकता अभी भी गहरी है। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जाति आधारित भेदभाव और शोषण की घटनाएँ देखने को मिलती हैं। जातीय आधार पर होने वाली हिंसा, राजनीतिक समीकरण, और सामाजिक असमानता आज भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।

  • राजनीतिक प्रभाव:- जातीय राजनीति ने भारतीय लोकतंत्र में एक विशेष स्थान बना लिया है। राजनीतिक दल चुनावों में जातीय समीकरणों का उपयोग करते हैं, जिससे जाति आधारित विभाजन और मजबूत होते हैं। इससे समाज में एकता और सामंजस्य की भावना कमजोर पड़ती है।
  • सामाजिक आंदोलनों की भूमिका:- समाज में जातीय असमानता के खिलाफ आज भी सामाजिक आंदोलन होते रहते हैं। दलित और पिछड़ी जातियों के सशक्तिकरण के लिए कई संगठन और समूह कार्यरत हैं। इन आंदोलनों का उद्देश्य है समाज में समानता, न्याय और समान अवसरों की स्थापना करना।

निष्कर्ष

जातीय व्यवस्था भारतीय समाज की एक पुरानी परंपरा है, जिसने लंबे समय तक समाज को विभाजित और असमान बनाए रखा। हालाँकि, सामाजिक सुधार आंदोलनों, संवैधानिक प्रावधानों और जागरूकता अभियानों के माध्यम से जातीय भेदभाव को कम करने के प्रयास किए गए हैं, लेकिन अभी भी पूरी तरह से समानता और न्याय की स्थापना नहीं हो पाई है। “Bihar Board Class 8 History Chapter 8 Notes” के माध्यम से विद्यार्थियों को जातीय व्यवस्था की इन चुनौतियों और उसके समाधान के बारे में जानकारी दी जाती है।

जातीय व्यवस्था के नकारात्मक प्रभावों से उबरने के लिए हमें एक समावेशी और समान समाज का निर्माण करना होगा, जहाँ सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के समान अवसर मिलें। सामाजिक चेतना, शिक्षा और संवैधानिक अधिकारों के माध्यम से ही हम एक समतावादी समाज की स्थापना कर सकते हैं, जो भारतीय लोकतंत्र के मूल्यों के अनुरूप हो।

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आध्याय अध्याय का नाम
1.संसाधन
1A.भूमि, मृदा एवं जल संसाधन
1B.वन एवं वन्य प्राणी संसाधन
1C.खनिज संसाधन
1D.ऊर्जा संसाधन
2.भारतीय कृषि
3उद्योग
3Aलौह-इस्पात उद्योग
3Bवस्त्र उद्योग
3C.सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग
4.परिवहन
5.मानव संसाधन
6.एशिया (no Available notes)
7भौगोलिक आँकड़ों का प्रस्तुतिकरण (no Available notes)
अतीत से वर्तमान भाग 3कक्ष 8 सामाजिक विज्ञान
आध्याय अध्याय का नाम
1.कब, कहाँ और कैसे
2.भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना
3.ग्रामीण ज़ीवन और समाज
4.उपनिवेशवाद एवं जनजातीय समाज
5.शिल्प एवं उद्योग
6.अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष (1857 का विद्रोह)
7.ब्रिटिश शासन एवं शिक्षा
8.जातीय व्यवस्था की चुनौतियाँ
9.महिलाओं की स्थिति एवं सुधार
10.अंग्रेजी शासन एवं शहरी बदलाव
11.कला क्षेत्र में परिवर्तन
12.राष्ट्रीय आन्दोलन (1885-1947)
13.स्वतंत्रता के बाद विभाजित भारत का जन्म
14.हमारे इतिहासकार कालीकिंकर दत्त (1905-1982)
सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन भाग 3
अध्यायअध्याय का नाम
1.भारतीय संविधान
2.धर्मनिरपेक्षता और मौलिक अधिकार
3.संसदीय सरकार (लोग व उनके प्रतिनिधि)
4.कानून की समझ
5.न्यायपालिका
6.न्यायिक प्रक्रिया
7.सहकारिता
8.खाद्य सुरक्षा

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